Nadi Ki Atmakatha in Hindi | नदी की आत्मकथा पर निबंध :
इतर जानकारी :
नमस्कार दोस्तों, आज Smart School Infolips पे हम पढ़ेंगे एक निबंध, “नदी की आत्मकथा” (Nadi Ki Atmakatha – Essay In Hindi)| निबंध लिखते समय शुरुआत, मुख्य भाग और अंत, इस तरह तीन हिस्सों में विभाजित कीजिए । अपने निबंध का प्रभाव बढ़ाने केलिए रूपक या अलंकारिक शब्द, और मुहावरोंका का प्रयोग करें। ये आप सभी विद्यार्थीओं के लिए उपयोगी हो सकता है|
इसी विषय पर अलग-अलग शब्दों का प्रयोग करके, निबंध लिखने दिया जाता है | जैसे की : (Nadi Ki Atmakatha in Hindi)
नदी की आत्मकथा हिंदी निबंध (nadi ki atmakatha nibandh in Hindia),
एक नदी की आत्मकथा (Ek Nadi Ki Aatmakatha in hindi).
गंगा नदी की आत्मकथा (Ganga nadi ki Aatmakatha).
यमुना नदी की आत्मकथा हिंदी निबंध. (Autobiography of River)
आत्मकथा नदी की – हिंदी निबंध.
यमुना नदी की आत्मकथा (Nadi ki atmakatha in hindi essay for class 10).
नदी की आत्मकथा हिंदी निबंध (Nadi ki atmakatha hindi nibandh).
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Table of Contents
नदी की आत्मकथा पर निबंध (१००+ शब्द में):
मै एक नदी हूँ| मेरा जन्म बर्फीले पहाड़ों के पिघलने से हुआ है। प्रकृति ने प्राणियों के जल की पूर्तता हेतु ही, मेरा निर्माण किया है| शुरुवाती चरण में मेरा रूप छोटा होता है| जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ती हूँ, मैं विशाल होती हूँ| पहाडोंसे शुरू होकर अंततः समुद्र में ख़तम होने वाला मेरा प्रवास रोमांच भरा होता है|
मै जहाँसे गुजरती हूँ, वहाँ का प्रदेश हरा-भरा कर देती हूँ| मेरी जल धार में अनगिनत जीव पनपते हैं| | मेरी राह रोकने हेतु, चट्टानें, खायीयाँ, पेड़, पथरोंके बांध आते है | लेकिन मैं इन सबको पार करके आगे नकलती हूँ |
मेरा जल पिने केलिए, बिजली निर्माण केलिए, खेत, फसलें, पेड़, फूल केलिए उपयोगी है। लेकिन इन्सान मुझे दूषित कर प्रकृति का संतुलन बिगाड़ रहा है |
(Nadi Ki Atmakatha in Hindi)
नदी की आत्मकथा पर निबंध (२ ००+ शब्द में):
मै एक नदी हूँ| मेरा जन्म बर्फीले पहाड़ों के पिघलने से हुआ है। प्रकृति ने प्राणियों के जल की पूर्तता हेतु ही, मेरा निर्माण किया है, यही मेरा कार्य है | शुरुवाती चरण में मेरा रूप छोटा होता है| लेकिन जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ती हूँ, मेरी धरा विशाल रूप धारण करती है| पहाडोंसे शुरू होकर अंततः समुद्र में ख़तम होने वाला मेरा प्रवास रोमांच भरा होता है|
मै जहाँसे गुजरती हूँ, वहाँ का प्रदेश हरा-भरा कर देती हूँ| मेरी जल धार में अनगिनत जीव पनपते हैं| | मेरी राह रोकने हेतु, चट्टानें, खायीयाँ, पेड़, पथरोंके बांध आते है | लेकिन मैं इन सबको पार करके आगे नकलती हूँ |
मेरा जल पिने केलिए होता है| मेरी जलसे बिजली उत्पादित होती है, खेतों सिंचते है, फसलें उगती हैं, पेड़ फलते-फूलते है। अप्रत्येक्ष रूप से इस सृष्टि के भोजन की व्यवस्था मुझसे होती है | इतनी उपयोगी होने के बावजूद, इन्सान मुझे दूषित करता है| मै केवल अपनी जिम्मेदारी निभाती रहती हूँ| आप अपनी जिम्मेदारी निभाकर प्रकृति का संतुलन बनाए रखें|
बिगड़ते संतुलनसे कहिपे कम तो कहिपे अधिक वर्षा होती है | इससे मेरे जल का स्तर बढ़ता है, फिर बाढ़ आती है | मैं अपना विक्राल रूप धारण कर लेती हूँ और गांव-के-गांव बहाती हूँ | मेरे कारण बहुत लोगों का घर उजड़ जाते है| मै प्रकृति के हात विवश हूँ|
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नदी की आत्मकथा पर निबंध (३००+ शब्द में):
मै एक नदी हूँ| पहाड़ों में निकले जल का मै एक स्रोत हूँ। मेरा जन्म बर्फीले पहाड़ों के पिघलने से हुआ है। प्रकृति ने प्राणियों के जल की पूर्तता हेतु ही, मेरा निर्माण किया है| यही मेरा मुख्य कार्य है | इसी कार्य हेतु मै खुदको, खुश किस्मत समझती हूँ | शुरुवाती चरण में मेरा रूप बहुत छोटा होता है| लेकिन जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ती हूँ, मेरी धरा विशाल रूप धारण करती चलती जाती है| पहाडोंसे शुरू होकर अंततः समुद्र में जाकर ख़तम होने वाला मेरा प्रवास बहुत रोमांच भरा होता है| मै जहाँसे गुजरती हूँ, वहाँ का प्रदेश हरा-भरा कर देती हूँ| मेरी जल धार में अनगिनत जीव पनपते हैं|
मेरे प्रवाह में अनेकों बाधाएँ आती हैं | मेरे राह रोकने हेतु, चट्टानें, खायीयाँ, पेड़, बड़े-बड़े पथरोंके बांध आते है | लेकिन मैं इन सबको पार करके आगे नकलती हूँ | अपना रास्ता खोजती हूँ या बना लेती हूँ | कभी धीरे तो कभी तेज धरा से इन सभी बाधाओं से आगे बढ़ती हूँ| मेरा जल पिने केलिए होता है, खेतों की सिंचाई की जाती है| मेरी जलसे बिजली उत्पादित होती है| फसलें उगती हैं, पेड़ फलते-फूलते है, और चारों ओर हरियाली छाई रहती है। अप्रत्येक्ष रूप से इस सृष्टि के भोजन की व्यवस्था मुझसे होती है |
इतनी उपयोगी होने के बावजूद, इन्सान मुझे दूषित करता है| कारखानों का दूषित पानी, रसायने मनुष्यों का कचरा, प्लास्टिक आदि मेरा पानी दूषित होता है। मै केवल अपनी जिम्मेदारी निभाती रहती हूँ, आप अपनी जिम्मेदारी निभाकर प्रकृति का संतुलन बनाए रखेंगे|
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बिगड़ते संतुलनसे कहिपे कम तो कहिपे अधिक वर्षा होती है | इससे मेरे जल का स्तर बढ़ता है, फिर बाढ़ आती है | मैं अपना विक्राल रूप धारण कर लेती हूँ और गांव-के-गांव बहाती हूँ | मेरे कारण बहुत लोगों का घर उजड़ जाते है, खेत-खलिहान सब उध्वस्त होता है | मै प्रकृति के हात विवश होकर, उस विनाश देखती रहती हूँ|
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नदी की आत्मकथा पर निबंध (४००+ शब्द में):
मै एक नदी हूँ| पहाड़ों में निकले जल का मै एक स्रोत हूँ। मेरा जन्म बर्फीले पहाड़ों के पिघलने से हुआ है। प्रकृति ने प्राणियों के जल की पूर्तता हेतु ही, मेरा निर्माण किया है| यही मेरा मुख्य कार्य है और मेरी जिम्मेदारी भी| इसी कार्य हेतु मै खुदको, खुश किस्मत समझती हूँ, की मेरे कारण किसीको जिंदगी मिलती है |
शुरुवाती चरण में मेरा रूप बहुत छोटा होता है| लेकिन जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ती हूँ, मेरी धरा विशाल रूप धारण करती चलती जाती है| पहाडोंसे शुरू हुआ मेरा सफर अंततः समुद्र में जाकर ख़तम होने वाला मेरा प्रवास बहुत रोमांच और हदसोंसे भरा होता है| मै जहाँसे गुजरती हूँ, वहाँका प्रदेश हरा-भरा कर देती हूँ, खुशहाल बनती हूँ| मेरी जल धार में अनगिनत जीव पनपते हैं, खुदकी दुनिया बसाते है|
मेरे प्रवाह में अनेकों बाधाएँ आती हैं | मेरे राह रोकने हेतु, चट्टानें, खायीयाँ, पेड़, बड़े-बड़े पथरोंके बांध आते है | लेकिन मैं इन सबको पार करके आगे नकलती हूँ | अपना रास्ता खोजती हूँ या बना लेती हूँ | कभी धीरे तो कभी तेज धरा से इन सभी बाधाओं से आगे बढ़ती हूँ| क्यूंकि मुझे पता मेरा मुख्य कार्य तो आगे है, जहाँ सभी प्राणी मेरा इंतजार कर रहें है |
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मेरे उपयोग तो बहुत सारे है | जैसे मेरा जल पिने केलिए होता है, खेतों की सिंचाई की जाती है| मेरी जलसे बिजली उत्पादित होती है| बिजलीसे मनुष्यने इतनी तरक्की हासिल की है। फसलें उगती हैं, पेड़ फलते-फूलते है, और चारों ओर हरियाली छाई रहती है। अप्रत्येक्ष रूप से इस सृष्टि के भोजन की व्यवस्था मुझसे होती है |
इतनी उपयोगी होने के बावजूद, इन्सान मुझे दूषित करता रहता है| कारखानों का दूषित पानी, रसायने मनुष्यों का कचरा, प्लास्टिक आदि मेरे पानी को दूषित करते है। मेरे साफ पानी को दूषित न करें| मै केवल अपनी जिम्मेदारी निभाती रहती हूँ, आप अपनी जिम्मेदारी निभाकर प्रकृति का संतुलन बनाए रखेंगे|
मनुष्य की जिद की वजहसे हमारी प्रकृति का संतुलन बिगड़ता जा रहा है| कहिपे कम वर्षा होती है तो कहिपे अधिक होती है | अधिक वर्षासे मेरे जल का स्तर बढ़ जाता है, फिर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है | प्रकृतिके साथ मैं भी अपना विक्राल रूप धारण कर लेती हूँ और गांव-के-गांव को बहा ले चलती हूँ | मेरे कारण बहुत लोगों का घर उजड़ जाते है, खेत-खलिहान सब उध्वस्त होता है | मै कभी ये सोचती तक नहीं, पर मै प्रकृति के हात विवश हूँ | जो होता है, उस विनाश को बेबस, दुखी होकर देखती रहती हूँ|
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नदी की आत्मकथा पर निबंध (५००+ शब्द में):
मै एक नदी हूँ| पहाड़ों में निकले जल का मै एक स्रोत हूँ। मेरा जन्म बर्फीले पहाड़ों के पिघलने से हुआ है। प्रकृति ने प्राणियों के जल की पूर्तता हेतु ही, मेरा निर्माण किया है| यही मेरा मुख्य कार्य है और मेरी जिम्मेदारी भी| इसी कार्य हेतु मै खुदको, खुश किस्मत समझती हूँ, की मेरे कारण किसीको जिंदगी मिलती है |
शुरुवाती चरण में मेरा रूप बहुत छोटा होता है| लेकिन जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ती हूँ, मेरी धरा विशाल रूप धारण करती चलती जाती है| पहाडोंसे शुरू हुआ मेरा सफर अंततः समुद्र में जाकर ख़तम होता है| एक ही वाक्य में समाप्त होने वाला यह प्रवास बहुत रोमांच और हदसोंसे भरा होता है| मेरी यात्रा समय, मै जहाँसे गुजरती हूँ, वहाँका आसपास का प्रदेश हरा-भरा कर देती हूँ। बेजान जमीनमें जान डालती हूँ, बंजर स्थल को खुशहाल बनती हूँ| मेरी जल धार में अनगिनत जीव पनपते हैं, संचार करते है, खुदकी दुनिया बसाते है|
मेरे प्रवाह में अनेकों बाधाएँ आती हैं | राहमें मुश्किलें ना हो तो चलनमें क्या मजा | मेरे राह में अवरोधक बनके खड़े होते है, नुकीले धार वाले पत्थरों की चट्टानें, खायीयाँ, पेड़, बड़े-बड़े पथरोंके बांध| लेकिन मैं इन सबको पार करके आगे नकलती हूँ | अपना रास्ता खोजही लेती हूँ, रास्ता न हो तो, नई राह बना लेती हूँ | कभी धीरे तो कभी तेज धरा से इन सभी बाधाओं का साहसता पूर्वक सामना करके आगे बढ़ती हूँ| क्यूंकि मुझे पता मेरा मुख्य कार्य तो आगे है, जहाँ सभी प्राणी मेरा इंतजार कर रहें है |
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मेरे उपयोग तो बहुत सारे है, जिसकी लम्बी कतार बन जाएगी | जैसे मेरे जल मुख्य उपयोग तो पिने केलिए होता है, उसपर खेतों की सिंचाई की जाती है| मेरी जल धारासे बिजली उत्पादित की जाती है| बिजली कारण मनुष्यने इतनी तरक्की हासिल की है। खेती के सम्बंधित सारे कार्य जलसेही मुमकिन है| जैसे फसलें उगती हैं, पेड़ फलते-फूलते है, और चारों ओर हरियाली छाई रहती है। अप्रत्येक्ष रूप से इस सृष्टि के भोजन की व्यवस्था मेरी जल के कारण ही होती है |
इतनी उपयोगी होने के बावजूद, इन्सान मुझे दूषित करता रहता है| कारखानों से निकलने वाला दूषित पानी, रसायने से| मनुष्यों द्वारा फेंका जानेवाला कचरा, प्लास्टिक आदि मेरे पानी को दूषित करते है। इंसानों से यह अनुरोध करना चाहती हूँ की कृपया वक्त रहते सुधर जाये| मेरे साफ पानी को दूषित न करें| मै केवल अपनी जिम्मेदारी निभाती रहती हूँ, आप अपनी जिम्मेदारी निभाओ | तभी प्रकृति का संतुलन बना रहेगा और यह प्रकृति खुशहाल रहेगी |
जिस प्रकार मनुष्य की जिद की वजहसे हमारी प्रकृति का संतुलन बिगड़ता जा रहा है| कहिपे कम वर्षा होती है तो कहिपे अधिक होती है | अधिक वर्षासे मेरे जल का स्तर बढ़ जाता है, फिर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है | प्रकृतिके साथ मैं भी अपना विक्राल रूप धारण कर लेती हूँ और गांव-के-गांव को बहा ले चलती हूँ | मेरे कारण बहुत लोगों का घर उजड़ जाते है, खेत-खलिहान सब उध्वस्त होता है | मै कभी ये सोचती तक नहीं, पर मै प्रकृति के हात विवश हूँ | जो होता है, उस विनाश को बेबस, दुखी होकर देखती रहती हूँ|
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नदी की आत्मकथा पर निबंध (६००+ शब्द में):
मै एक नदी हूँ| पहाड़ों में निकले जल का मै एक स्रोत हूँ। मेरा जन्म बर्फीले पहाड़ों के पिघलने से हुआ है। मै ऐसे वस्तु का अंश हूँ, जिसे हर जिव जंतु को, बेहद जरुरी है, जी हाँ वह है पानी| प्रकृति ने प्राणियों के जल की पूर्तता हेतु ही, मेरा निर्माण किया है| यही मेरा मुख्य कार्य है और मेरी जिम्मेदारी भी| इसी कार्य हेतु मै खुदको, खुश किस्मत समझती हूँ, की मेरे कारण किसीको जिंदगी मिलती, किसीकी जिंदगी पलती है |
शुरुवाती चरण में मेरा रूप बहुत छोटा होता है| लेकिन जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ती हूँ, मेरी धरा विशाल रूप धारण करती चलती जाती है| पहाडोंसे शुरू हुआ मेरा सफर अंततः समुद्र में जाकर ख़तम होता है| एक ही वाक्य में समाप्त होने वाला यह प्रवास बहुत रोमांच और हदसोंसे भरा होता है| मेरी यात्रा समय, मै जहाँसे गुजरती हूँ, वहाँका आसपास का प्रदेश हरा-भरा कर देती हूँ। बेजान जमीनमें जान डालती हूँ, बंजर स्थल को खुशहाल बनती हूँ| मेरी जल धार में अनगिनत जीव पनपते हैं, संचार करते है, खुदकी दुनिया बसाते है|
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मेरे प्रवाह में अनेकों बाधाएँ आती हैं, मुश्किलें आती है| जीतनी सहज नदी की धरा दिखाती है, उतना सहज जीवन हो तो जीनेमें क्या मजा | राहमें मुश्किलें ना हो तो चलनमें क्या मजा | मेरे राह में अवरोधक बनके खड़े होते है, नुकीले धार वाले पत्थरों की चट्टानें, तेज गहराई वाली खायीयाँ| कटोंसे भरे पेड़ोंकी वादियाँ | बड़े-बड़े पथरोंके बांध| लेकिन मैं इन सबको पार करके आगे नकलती हूँ | किसीना किसी तरह अपना रास्ता खोजही लेती हूँ| रास्ता न हो तो, नई राह बना लेती हूँ | कभी धीरे तो कभी तेज धरा से इन सभी बाधाओं का साहसता पूर्वक सामना करके आगे बढ़ती हूँ| क्यूंकि मुझे पता मेरा मुख्य कार्य तो आगे ही है, जहाँ सभी प्राणी मेरा इंतजार कर रहें है |
मेरे उपयोग तो बहुत सारे है, जिसकी लम्बी कतार बन जाएगी | जैसे मेरे जल मुख्य उपयोग तो पिने केलिए होता है, उसपर खेतों की सिंचाई की जाती है| पानी की जीवनमें जितनी भी जरूरतें है, वह सारी मुज़सेही पूरी की जाती है | मेरी जल धारासे बिजली उत्पादित की जाती है| अब बिजली की कितनी जरूत है, आपको ज्ञात ही होगा| बिजली कारण मनुष्यने इतनी तरक्की हासिल की है, काफी कार्य बिजली पर संभव है । खेती के सम्बंधित सारे कार्य जलसेही मुमकिन है| जैसे फसलें उगती हैं, पेड़ फलते फूलते है, और चारों ओर हरियाली छाई रहती है। अप्रत्येक्ष रूप से इस सृष्टि के भोजन की व्यवस्था मेरी जल के कारण ही होती है |
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अब पता हुआ कितनी उपयोगी हूँ मै| मुझे मालूम है की भारत देश में कई नदियाँ बहती है, जैसे की गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, ब्रह्मपुत्रा, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा आदि। भारतीय संस्कृति अनुसार आप नदी की पूजा भी करते है | लेकिन इस के बावजूद, इन्सान मुझे दूषित करता रहता है| कारखानों से निकलने वाला दूषित पानी, रसायने से| मनुष्यों द्वारा फेंका जानेवाला कचरा, प्लास्टिकआदि मेरे पानी को दूषित कर रहा है। इसलिए, मैं इंसानों से अनुरोध करना चाहती हूँ की कृपया वक्त रहते सुधर जाये| मेरे साफ पानी को दूषित न करें, उसीमें आप सबकी भलाई है | मै केवल अपनी जिम्मेदारी निभाती रहती हूँ, आप अपनी जिम्मेदारी निभाओ | तभी प्रकृति का संतुलन बना रहेगा और यह प्रकृति खुशहाल रहेगी |
जिस प्रकार मनुष्य की जिद की वजहसे हमारी प्रकृति का संतुलन बिगड़ता जा रहा है| इसीकारण कहिपे कम वर्षा होती है तो कहिपे अधिक | अधिक वर्षा के होनेसे मेरे जल का स्तर बहुत बढ़ जाता है और फिर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है | प्रकृतिके साथ मैं भी अपना विक्राल रूप धारण कर लेती हूँ और परिणाम स्वरुप गांव-के-गांव सभी को बहा ले चलती हूँ | मेरे कारण बहुत लोगों का घर उजड़ जाते है, खेत-खलिहान सब उध्वस्त होता है | जब शांत होकर बिखरा नजारा देखर दुखी हो जाती हूँ | मै कभी ये सोचती तक नहीं, पर मै प्रकृति के हात बंधी हूँ | जो होता है उस विनाश को बेबस होकर देखती रहती हूँ |